प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अक्सर ये कहा है कि “भारत ने दुनिया को युद्ध नहीं, बुद्ध दिये हैं”और ये सच भी है। वैसै तो ‘रीलिजन ऑफ़ पीस’ की ब्रान्डिंग आजकल कोई और ले भागा है, पर भारत की सनातनी परंपरा में शांति का संदेश हमेशा से रहा है। लेकिन कुछ लोग है, जो भारत में ही, जहां भी बुद्ध हैं, वहां युद्ध कराना चाहते है।
ऐसा ही कुछ आजकल हो रहा है बिहार के बोध गया में। यहां के महाबोधि मंदिर परिसर में धक्का-मुक्की और हिंसा की बातें हो चुकी हैं, और इसके बारे में इंटरनेट पर काफ़ी प्रोपगैंडा भी चल रहा है। अपने आप को ‘अंबेडकरवादी’ कहने वाला नवबौद्ध ऐसा दिखाना चाह रहे हैं कि हिन्दुओं ने बौद्धों पर हमला किया। ये भी दावा किया गया कि भंते विनयाचार्य नाम से एक बौद्ध भिक्खु को बिहार पुलिस ने गिरफ़्तार भी कर लिया है। पर ये सारी बातें सच से काफ़ी दूर थी। आज के इस वीडियो में हम इसी बुद्ध पे युद्ध की विडंबना को समझेंगे।नमस्कार मैं हूं ऋतिका, आप देख रहे हैं ऑप इंडिया।
तो बात है बिहार के गया जिले की, जहां गया जी और बोध गया नाम से दो शहर हैं – यहाँ गया जी में विष्णुपद मंदिर है और बोध गया में महाबोधि मंदिर है, जहाँ ‘हिन्दू’ अपनी परंपरा अनुसार ‘पिंडदान’ करते हैं, ‘शिवलिंग’ पूजते हैं और विष्णु के अवतार माने जाने वाले भगवान् बुद्ध को भी पूजते हैं, हिन्दुओं के साथ यहाँ बौद्ध धर्म के लोग भी अपने धार्मिक अनुष्ठानका कार्य करते हैं… इस इलाक़े को ‘spiritual capital of Bihar’ कहें तो शायद ग़लत नहीं होगा। लेकिन यहां की spirituality में ‘Politics’ की सेंध लगाई जा रही है, “महाबोधि मंदिर के प्रबंधन को लेकर”।
अब ‘नवबौद्ध’ और ‘भीम आर्मी’ जैसे संगठन चाहते हैं कि हिन्दूओ और बौद्धों की इस साझी विरासत को नज़रअंदाज़ करते हुए ‘मंदिर प्रबंधन’ से हिन्दूओं को पूरी तरह बाहर कर दिया जाए। भले ही हिन्दू ‘ये माने’ कि ये उनका भी मंदिर है, भले ही वो गौतम बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार मानें! उनका अब इस मंदिर से कोई वास्ता न हो, इसी मांग को लेकर अब बोध गया में जातिगत नफ़रत का “वायरस” फैलाया जा रहा है!!
इस वायरस की दिलचस्प बात ये है कि इसकी जड़ें भारत में नहीं हैं बल्कि श्रीलंका से जुड़ी हुई हैं और आज जो विवाद इस मंदिर पर चल रहा है उसके बीज तो 1890 में बोये जा चुके थे। इसके केंद्र में वही श्रीलंका से आया रहस्यमयी किरदार था, जो श्रीलंका के एक ईसाई परिवार में जन्मा था। जिनका नाम था – ‘धरमपाल’ “उर्फ़” Don David hewavitarne.
कहानी शुरू होती है Don David Hewavitarne उर्फ़ अनागारिक धर्मपाल से। Don David का जन्म 17 September 1864, मातारा श्रीलंका मे हुआ; डॉन डेविड के पिता का नाम Don Carolis था, जो कि एक क्रिश्चियन थे और इनकी माता का नाम Mallika Hewavitharne था। ये पूरी फ़ैमिली श्री लंका में ही रहती थी। डेविड की माँ, शादी से पहले ही बुद्धिज़्म फॉलो करती थी। Don David Hewavitarne अमीर खानदान में जन्में थे क्यूंकि उनके पिता जी बिजनेसमैन थे।
डॉन डेविड ने अपनी माता के ‘पदचिन्हों’ पर चलने की ठानी और सिंहाला बुद्धिज़्म अपनाया, यानी वो बुद्धिज़्म, जो श्रीलंका में फॉलो किया जाता है। बाद में डॉन डेविड की माता बुद्धिस्ट थियोसोफिकल सोसाइटी की प्रेसिडेंट बनी, ‘‘थियोसोफिकल सोसाइटी’‘ (take the logo) वो मूवमेंट था जो अमेरिका से 1875 में शुरू हुआ था जिसके फाउंडर Helena Blavatsky और Henry Steel Olcott थे, दोनों ही न्यूयॉर्क में थे, दोनों ही ईसाई थे, यहाँ धर्म बताना ज़रूरी है क्यूंकि धर्मों की बात हो रही है. खैर! देखते ही देखते अब थियोसोफिकल सोसाइटी के टोर्च बेयरर डॉन डेविड बने जिसने अपना नाम बदला और अनागारिक धरमपाल किया और नाम बदलकर पीला चोगा पहने भारत आए।
अनागारिक धरमपाल भारत आये और यहाँ आकर उन्होंने हमारी हिंदू परंपराओं में हस्तक्षेप करना शुरू किया। इनका कहना था कि वो “ब्राह्मणवाद” का विरोध कर रहे थे । मुख्य विरोध तो हिन्दू परम्पराओं के ख़िलाफ़ था ही और इसी के साथ ये एक फॉरेन फंडेड प्रोजेक्ट था, जिसका मकसद था कि कैसे हिदुओं को बुद्ध पूजने से अलग किया जाए! कैसे बुद्ध को सिर्फ बुद्धिस्ट तक सीमित किया जाए।
डॉन डेविड की हरकतों का नतीजा ये हुआ कि महाबोधी मंदिर, जिसका प्रबंधन अब तक हिन्दू महंत कर रहे थे, अब उस प्रबंधन में बौद्धोॆ को भी जगह दी गयी। देखने वाली बात है कि प्रबंधन में किए इस बदलाव का हिन्दुओं ने कोई विरोध नहीं किया, जैसा कि अब नवबौद्ध कर रहे हैं। शायद हिन्दुओं ने इसे बौद्धों का हस्तक्षेप नहीं बल्कि साझी विरासत माना।
इसके बाद मंदिर की ये साझी विरासत चलती रही, जिसको आज़ादी के बाद समाज या सरकार ने तोड़ देना सही नहीं समझा। 1947 में आज़ादी के बाद एक क़ानून बना बुद्धिस्ट टेम्पल एक्ट 1949, जिसके अंदर मंदिर के प्रबंधन को हिन्दुओं और बौद्धों – दोनो को सौंपा गया और उनको एक कमेटी के अंदर डाला गया जिसका नाम था बुद्धिस्ट टेम्पल मैनेजमेंट कमेटी।
कुछ नवबौद्धों और भीम आर्मी जैसे संगठनों की ये मांग है कि मंदिर का चार्ज पूरी तरह सिर्फ बौद्धों के हाथ में आ जाये। यानी हिन्दुओं का इनडलजेंस पूरी तरह से हट जाए।
याद रहे कि इस वक़्त जवाहरलाल नेहरू और बीआर अंबेडकर जैसे बड़े नाम भारत का भविष्य कैसा हो, इसके लिए क़ानून और कायदे बना रहे थे। हालांकि व्यक्तिगत तौर पर अंबेडकर को महाबोधि मंदिर को पूरी तरह बौद्धों को देने से कोई आपत्ति थी या नहीं थी, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता दिखा है, लेकिन उनके जीवनकाल में ही ये एक्ट बना जहां कि मंदिर के प्रबंधन में हिन्दुओं को भी जगह दी गयी।
आंबेडकर, जिनके नाम से आज इस मंदिर में बवाल मचाने की तैयारी हो रही है, उन्होंने बोध-गया आकर इस एक्ट का विरोध किया हो, इसका भी इतिहास में ऐसा कोई प्रमाण दर्ज नहीं है।
चाचा नेहरू ने भी महाबोधि मंदिर के प्रबंधन में हिन्दुओं के होने पर कोई आपत्ति नहीं जतायी। हां, उन्होंने भले ये कहा कि, इस कमेटी में एक “नॉन इंडियन बुद्धिस्ट” रिप्रेजेन्टेटिव को जोड़ा जाए, वो अलग बात है कि ये पूरी आग डॉन डेविड नाम के एक नॉन इंडियन बुद्धिस्ट ने ही लगायी थी जो कि असल में एक ईसाई था।
वैसे तो महाबोधि मुक्ति आंदोलन के नाम पे बोध गया में इस विवाद को हवा देने की कोशिश कई सालों से चल रही है, लेकिन हाल में इसका काफ़ी विकृत चेहरा देखने को मिल रहा है – कभी शांति से अपने पूर्वजो के पिंडदान कर रहे हिन्दुओं को मंदिर से बाहर जाने का फ़रमान सुना दिया जाता है, कभी फिर ब्राह्मणों के खिलाफ़ जातिसूचक शब्दों को इस्तेमाल किया जाता है, तो कभी झूठ फैलाया जाता है कि सरकार ने बोद्ध भिक्षु को गिरफ्तार कर लिया है। और ये सब हो रहा! – बुद्ध के नाम पे या फिर “ब्राह्मणवाद” के खिलाफ लड़ाई के नाम पे।
हाल ही में बुद्ध पूर्णिमा के दिन जब बिहार के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान, BTMC के चेयरमैन और वहाँ के डीएम, मंदिर में जाकर मंत्रोच्चारण के साथ शिवलिंग की पूजा करते हैं, तो कुछ नवबौद्ध इस पर ब्राह्मणवाद का ठप्पा लगाकर विरोध करने लगते हैं। नव बौधों की आँखों में हिन्दू धर्म की परम्पराएं इतनी चुभी कि पिंडदान करने वालों के साथ हिंसा की धमकी देने के मामले भी सामने आए। इस आग में घी डालने का काम बड़ी तादात में भीम आर्मी और नीओ-बुद्धिस्ट करते नज़र आ रहे हैं, तो ज़ाहिर है कि माँग घूम फिरकर हिन्दुओं के खिलाफ हो जाती है।
इस मंदिर में हिन्दुओं की परंपराओं से असल में नव बौद्ध परेशान हैं। उन्हें ‘हिंदुओं’ के मंत्रोच्चारण से दिक्कत है, उन्हें ‘शिवलिंग पूजे’ जाने से दिक्कत है, BBC की एक रिपोर्ट के अनुसार, बोधगया के स्थानीय विद्यानंद पांडे का कहना है कि “हमारे शिवलिंग और पाँच पांडव यहाँ पर हैं, पीढ़ियों से लाखों लोग यहाँ पिंडदान करते हैं और ये लोग कहते हैं कि सनातन धर्म को हटा दो”
यहां एक बार फिर ये बताना ज़रूरी है कि हिन्दुओं ने कभी बौद्धों के मंदिर प्रांगण या प्रबंधन में होने को ग़लत नहीं बताया है। बताएं भी क्यूं जब कई हिन्दू गौतम बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार मानते हैं। अयोध्या के राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा में भी बौद्ध भिक्षुओं को बुलाया गया था। पर नवबौद्ध नहीं चाहते कि हिन्दुओं का महाबोधी मंदिर पर कोई अधिकार रहे।
इन सब को बिहार की राजनीति से अलग भी देखना सही नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ़ धर्म की बात है। अब इसमें जाति का तड़का लग चुका है। दलित राजनीति की रोटी सेंक रहें कई लोग अब इस आग में घी डालने की कोशिश कर रहे हैं अंबेडकरवाद के नाम पे। जैसै जैसे बिहार चुनाव की तारीख़ें नज़दीक आएंगी, इस आग को और भड़काने की कोशिश की जाएगी।
और जब चुनाव और जात का बात हो, तो मुझे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर राहुल गांधी थाईलैंड की जगर अगली बार बोध गया पहुंच जाए।
फ़िलहाल तो हम यही प्रार्थना कर सकते हैं कि बुद्ध के नाम पे युद्ध को आतुर लोग इस वायरस को फैलने से रोकें। क्योंकि पारंपरिक रूप से चली आ रही साझी विरासत ही इस वायरस का एकमात्र एंटीडॉट है।