पिछले कुछ दिनों में, आपने देखा होगा कि कई लोगो ने सोशल मीडिया पर यह अपील की, कि इंडियन टूरिस्ट्स, Turkey और अजरबैजान जैसे देशों को बॉयकॉट करें। बड़ी संख्या में भारत के लोग इन दोनों देशों में घूमने के लिए जाते हैं। लोगों से यह भी अपील की गई की इन देशों के प्रोडक्ट्स को न खरीदा जाए।
इस बॉयकॉट के पीछे का मुख्य कारण है, कि हर बार, हर स्थिति में तुर्किए और अजरबैजान जैसे देश भारत के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। अभी हाल ही में तुर्किए ने ऑपरेशन सिन्दूर के दौरान पाकिस्तान की खुल के मदद की. इसके अलावा अजरबैजान की सरकार ने ऑपरेशन सिन्दूर पर भारत के खिलाफ बोला। Ajarbaijan के लोगों ने कई ट्वीट्स भी किए हैं, कि भारत उनके लिए कोई मायने नहीं रखता।
“हमारे यहाँ एक कहावत भी है, ज्ञानी से ज्ञानी मिले, मिले नीच से नीच। पानी से पानी मिले, मिले कीच से कीच।”
आप में से कई लोगों ने तुर्किए के बारे में तो सुना ही होगा। तुर्किए के भारत विरोधी स्टैंड के बारे में तो लगभग सभी जानते हैं। लेकिन लोगो में इस बात की उत्सुकता जरूर है, कि आखिर अजरबैजान का भारत ने क्या बिगाड़ा है? ये क्यों भारत के खिलाफ बोल रहा है?
इस Video में हम अजरबैजान के बारे में कुछ चीज़ें जानेंगे। उसके बाद हम यह भी जानने का प्रयास करेंगे कि वो कौन से ऐसे कारण हैं, कि पाकिस्तान की सीमा से हज़ारों किलोमीटर दूर यह दोनों देश तुर्किए और अजरबैजान आज पाकिस्तान के साथ खड़े हैं?
शुरुआत करते हैं अजरबैजान से। भारत की सीमा से 3500 किलोमीटर से भी दूर स्थित यह देश तुर्किए का पड़ोसी है।
यह देश मूल रूप से एक इस्लामिक देश है। 1991 में कोल्ड वॉर खत्म हुआ, तो सोवियत संघ कई भागों में टूट गया। अजरबैजान नाम का एक देश सोवियत संघ से आज़ाद हुआ। और तुर्किए ने सबसे पहले उसे मान्यता दी।
अभी कुछ वर्ष पहले, 2020 में अजरबैजान और आर्मेनिया के बीच नागोर्नो-काराबाख क्षेत्र को लेकर युद्ध हुआ। एक ईसाई राष्ट्र — आर्मेनिया, और एक मुस्लिम राष्ट्र — अजरबैजान, आमने-सामने थे। इस युद्ध में तुर्किए ने खुलेआम अजरबैजान का समर्थन किया। यह युद्ध केवल दो देशों के बीच नहीं था — इसे “इस्लाम बनाम क्रिश्चियनिटी” के रूप में प्रचारित किया गया। यह प्रचार किया गया कि “इस्लाम पर हमला हुआ है।”
इस युद्ध में तुर्किए की मदद से अजरबैजान ने आर्मेनिया की निर्दोष जनता पर खूब अत्याचार किए। उन अत्याचारों के किस्से आज भी इतिहास में पड़े हुए हैं। कुछ ऐसे भी इंसिडेंट्स हुए जिसमें अजरबैजान के सैनिकों ने आर्मेनिया की चर्च पर चढ़कर इस्लामिक नारे लगाए। अजरबैजान की हरकतें इतनी कायराना और घटिया थीं कि आर्मेनिया के लोगों ने कब्रों से अपने मरे हुए लोगों को भी हटाया, क्योंकि अजरबैजान के सैनिकों को ईसाई कब्रों को तबाह करने में ख़ुशी मिलती थी। एक क़िस्सा तो यह भी था कि किसी आर्मीनियन सैनिक को अजरबैजान ने कैद कर लिया था, और फिर छह महीने बाद उसकी माँ को उसकी बॉडी मिली — जिसमें उसका सिर ही गायब था।
आपमें से कई लोगों को याद होगा — ठीक ऐसा ही इंसिडेंट पाकिस्तान ने भी भारत के एक सैनिक के साथ किया था, जब हमारे बहादुर सैनिक सौरभ कालिया को पाकिस्तानी सेना ने कैद कर लिया था। फिर उनका मृत शरीर भारत में आया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पता चला कि पाकिस्तानी सेना ने उन्हें सिगरेट से दागा, उनके कानों में गर्म सालाखें डाली गईं, उनकी आँखें निकाल ली गईं, उनके दाँत तोड़ डाले गए, उनकी हड्डियां तोड़ी गईं, उनके प्राइवेट पार्ट्स काट दिए गए और अंत में सिर में गोली मार दी गई।
काफ़िरों के प्रति इतनी नफ़रत और इतनी घृणा ही अजरबैजान और पाकिस्तान को एक-दूसरे के नज़दीक लाती है। और इस त्रिकोण का तीसरा देश है तुर्किए, जो हर स्थिति में, हर स्थान पर, इस्लाम के नाम पर इनका समर्थन करता है।
अब हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि आखिर क्यों तुर्किए हमेशा पाकिस्तान और अजरबैजान जैसे देशों के साथ खड़ा रहता है? इसके लिए हमें थोड़ा सा पीछे — इतिहास में जाना पड़ेगा।
तुर्किए और अजरबैजान आज जिस क्षेत्र में हैं, वहाँ एक समय कभी दुनिया का सबसे बड़ा इस्लामिक साम्राज्य हुआ करता था — ओटोमन साम्राज्य।
ओटोमन साम्राज्य ने इस्लाम के नाम पर न जाने कितने लोगों को मारा, कितने नरसंहार किए, और कितनी सभ्यताओं को कुचला।
इसके शासक खुद को गाज़ी कहते थे — यानी इस्लाम के सैनिक। लड़ाई में जाने वाला हर सैनिक मानता था कि वह “काफ़िरों” को खत्म कर रहा है और जन्नत उसका इंतज़ार कर रही है। इस विचार के साथ ओटोमन साम्राज्य ने पूरी दुनिया में तलवार के दम पर अपनी सत्ता कायम की। एशिया, यूरोप और अफ्रीका के कई क्षेत्रों में इन्होंने कई लोगों को इस्लाम के नाम पर मारा।
ओटोमन साम्राज्य द्वारा जो नरसंहार किए गए, उनमें सबसे बड़ा नरसंहार — आर्मेनिया के साथ हुआ। जब 1915 में वर्ल्ड वॉर के दौरान आर्मेनियन ईसाइयों का कत्लेआम किया गया। उनकी औरतों को ‘माल ए ग़नीमत’ कहकर मुस्लिम सैनिकों में बांट दिया गया। आर्मेनियनों के साथ-साथ, असीरियन और पॉण्टिक ग्रीक्स का भी कत्ल हुआ। कुल मिलाकर, लगभग 30 लाख ईसाई मारे गए या इस्लाम कबूल करने को मजबूर हुए।
ओटोमन साम्राज्य ने शुरू से लेकर अंत तक एक नीति पर काम किया, जिसका नाम था — देवशिर्मे।
इस नीति के अंतर्गत आसपास के ईसाई बच्चों को जबरन उठाया जाता था। उनके माता-पिता से छीनकर उन्हें इस्लाम कबूल करवाया जाता था, और फिर उन्हें सिपाही बनाकर इस्तेमाल किया जाता था।
बहरहाल, तुर्किए से जब ओटोमन साम्राज्य खत्म हुआ, तो मुस्तफ़ा कमाल के नेतृत्व में तुर्किए को सेक्युलर देश बना दिया गया। लेकिन सिर्फ कहने भर के लिए।
आज का तुर्किए — उस ओटोमन साम्राज्य के उस विचार को, उस इतिहास को फिर से जिंदा करना चाहता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है — हागिया सोफिया
हागिया सोफिया एक बैजंटाइन चर्च था, जिसे 1453 ईस्वी में ओटोमन साम्राज्य के द्वारा एक मस्जिद में परिवर्तित कर दिया गया था। 1934 में, आधुनिक तुर्किए के संस्थापक — मुस्तफ़ा कमाल — ने इसे एक म्यूज़ियम में बदल दिया और यह कहा कि यह म्यूज़ियम ईसाइयों और मुस्लिमों, सबके लिए खुला रहेगा। इससे दुनिया को यह लगा कि तुर्किए अब वाकई में सेक्युलर हो गया है।
लेकिन 2020 में तुर्किए के वर्तमान राष्ट्रपति एर्दोआँ ने इसे फिर से एक मस्जिद में बदलने का फैसला किया। एर्दोआँ उस म्यूज़ियम को वापस से मस्जिद में बदलकर, कहीं न कहीं ओटोमन साम्राज्य के उस सपने को फिर से जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं। हाज्या सोफिया को मस्जिद बनाना सिर्फ इमारत का बदलाव नहीं है — बल्कि वह एक एलान है कि “खिलाफ़त वापस लानी है।”
तुर्किए की आत्मा में आज भी ओटोमन साम्राज्य की गूँज सुनाई देती है। लगभग 600 वर्षों तक चले ओटोमन साम्राज्य ने केवल भौगोलिक सीमाएं नहीं बदलीं, बल्कि अरब, फ़ारसी और तुर्क सभ्यताओं के मिश्रण से एक नए इस्लामिक “उम्मा” का गठन किया। ओटोमन सुल्तानों का यह दावा था कि वे “खलीफा” हैं — खलीफा यानी पूरी इस्लामिक कम्युनिटी के नेता।
यदि हम यह कहें कि आज का तुर्किए उसी खलीफा के पद को पुनर्जीवित करने की ओर बढ़ रहा है, तो इसमें कुछ गलत नहीं होगा।
तुर्किए इस समय पूरी दुनिया को जिस तरह से देख रहा है, उसकी नीतियों की जड़ें इसी इतिहास में हैं। एर्दोआँ के भाषणों में बार-बार “महान तुर्किए”, “नव-ओटोमनवाद” (Neo-Ottomanism) जैसे शब्द आते हैं। तुर्किए की विदेश नीति भी इस सपने से प्रेरित है।
बीते दिनों जब ऑपरेशन सिन्दूर चल रहा था, तो हम सबने देखा कि किस प्रकार तुर्किए पाकिस्तान की मदद कर रहा था। आखिर क्यों? तुर्किए तो पाकिस्तान से बहुत दूर है। यह दोनों देश तो बॉर्डर भी साझा नहीं करते। फिर किस नाम पर यह दोनों देश एक हुए? यह दोनों देश अगर एक हुए हैं, तो सिर्फ और सिर्फ इस्लाम के नाम पर…
तुर्किए और पाकिस्तान का रिश्ता एक ऐसा रिश्ता है, जिसमें धर्म के नाम पर भावनाएं ज़्यादा दिखाई देती हैं। क्योंकि एक तरफ़ जहाँ पाकिस्तान की स्थापना ही इस्लाम के नाम पर हुई थी, वहीं दूसरी तरफ़ तुर्किए ओटोमन काल की विरासत और खिलाफ़त के उत्तराधिकारी के रूप में खुद को पेश करता है। दोनों देशों के डीएनए में इस्लामी एकता की सोच घुली हुई है। आपस में मिलने के लिए इससे बड़ा कारण और भला क्या चाहिए?
तुर्किए और पाकिस्तान, दोनों ही देशों ने बार-बार “इस्लामी एकता” की बात की है — कश्मीर का मुद्दा हो, फिलिस्तीन का मुद्दा हो, या फिर इस्लाम से संबंधित कोई भी मुद्दा हो, इन दोनों देशों ने उन पर एकजुटता दिखाई है।
और यह एकजुटता सिर्फ सरकारों के स्तर तक ही सीमित नहीं है, बल्कि जनता के स्तर पर भी है। पाकिस्तान में तुर्किए को लेकर एक सांस्कृतिक आकर्षण भी है। तुर्किए का एक टेलीविजन सीरियल है “एर्तुगरुल गाज़ी।” यह सीरियल ओटोमन साम्राज्य के ऊपर बना हुआ है। इसे पाकिस्तान में खूब देखा जाता है। पाकिस्तान में आज कई लोग तुर्किए के राष्ट्रपति एर्दोआँ को इस्लामी नेता मानते हैं — कोई उन्हें “खलीफा एर्दोआँ” कहता है, तो कोई उन्हें “इस्लाम की आशा।”
तुर्किए इस प्रेम को बखूबी इस्तेमाल कर रहा है।
लेकिन यह सब कुछ सिर्फ इस्लामी भावना नहीं है — यह एक भू-राजनीतिक रणनीति भी है। पाकिस्तान एकमात्र ऐसा इस्लामिक देश है जिसके पास परमाणु बम है। इसलिए पाकिस्तान को साथ में रखकर तुर्किए अपनी इस्लामिक उम्मा वाली रणनीति को एशिया तक विस्तार देना चाहता है।
पाकिस्तान एक ऐसा देश है जो अपनी पहचान की तलाश में है, और तुर्किए एक ऐसा देश है जो अपनी खोई हुई पहचान को फिर से स्थापित करना चाहता है। तुर्किए ने यह दिखाया कि वह उम्मा का संरक्षक है, और पाकिस्तान ने यह दर्शाया कि वह उम्मा का सेनापति है।
तो आप ज़रा सोचिए — कि इतिहास भले ही खत्म हो चुका हो, लेकिन क्या उसका प्रभाव खत्म हुआ है?
क्या ओटोमन साम्राज्य अब केवल किताबों और डॉक्यूमेंट्रीज़ तक सीमित है? क्या उसके विचार, उसकी “खिलाफ़त”, उसकी तलवार की भूख, उसकी खून की प्यास — ये सब भी उसी के साथ दफ़न हो चुके हैं?
अगर आपका जवाब “हाँ” है… तो शायद आप ग़लत हैं।
क्योंकि जब इतिहास केवल अतीत न रहकर वर्तमान को निर्देशित करने लगे, तो वह सिर्फ इतिहास नहीं रह जाता, बल्कि विचारधारा बन जाता है। और ओटोमन साम्राज्य की विरासत आज विचारधारा बनकर तुर्किए की आत्मा में धड़क रही है।
आज अजरबैजान और तुर्किए भारत की आलोचना कर रहे हैं कि भारत ने पाकिस्तानी आतंकवादियों को मारकर ग़लत किया। लेकिन यही अजरबैजान और तुर्किए तब चुप थे, जब पहलगाम में आतंकियों ने हमारे निर्दोषों को मारा। क्योंकि पाकिस्तान, अजरबैजान और तुर्किए जैसे देशों के लिए किसी दूसरे धर्म के लोगों की जान की कोई वैल्यू नहीं है। ये तीनों देश सिर्फ और सिर्फ कट्टर इस्लामिक सोच वाले हैं, और हमेशा हर बुराई में एक-दूसरे को समर्थन करते हैं।
तुर्किए, अजरबैजान और पाकिस्तान, मिलकर पूरी वैश्विक राजनीति को एक बार फिर से मध्ययुगीन सोच की ओर धकेल रहे हैं।